दरअसल, संघ की 2025 में शताब्दी महोत्सव आयोजित करने की बड़ी योजना है। इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि 2024 के आम चुनाव के बाद भाजपा सत्ता में रहती है या नहीं। संघ के शीर्ष नेता हमेशा दावा करते आए हैं कि उनका संगठन सामाजिक और सांस्कृतिक है, चुनावी राजनीति में वे हस्तक्षेप नहीं करते। लेकिन भाजपा शासित राज्यों में असंतोष बढ़ने और कोविड-19 की दूसरी भीषण जानलेवा लहर के बाद भाजपा और संघ नेताओं के बीच समन्वय बैठकें अब ज्यादा होने लगी हैं। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में संघ के पदाधिकारी जमीनी स्तर पर काम करते नजर आए थे। अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उनकी सक्रियता काफी बढ़ गई है। भाजपा के एक महासचिव कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं। यह भाजपा और पूरे संघ परिवार के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से 2024 के चुनावों की तस्वीर साफ होगी, इसीलिए संघ यहां पीसमेकर की भूमिका निभा रहा है।”
इस बीच, भाजपा के लिए अच्छी खबर यह है कि जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में उसे 75 में से 67 में जीत मिली है। प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के खाते में सिर्फ पांच सीटें आई हैं। राष्ट्रीय लोकदल को एक सीट पर जीत मिली। भाजपा ने समाजवादी पार्टी को उनके गढ़ मैनपुरी, रामपुर, बदायूं और आजमगढ़ में भी शिकस्त दी है। माना जा रहा है कि बसपा समर्थकों ने इन चुनावों में भाजपा के पक्ष में वोट दिया।
इसके बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली के खिलाफ असंतोष की आवाज है। आरोप है कि पार्टी के विधायकों और मंत्रियों से ज्यादा वे अधिकारियों पर भरोसा करते हैं, ठाकुरों को ज्यादा तरजीह मिलती है जबकि अन्य किनारे कर दिए गए हैं। कोरोना महामारी से निपटने के उनके तरीके की आलोचना के साथ असंतोष की आवाज तेज हो गई है। भाजपा नेताओं के साथ कई बैठकों में संघ के पदाधिकारियों ने उन्हें दूसरे राज्यों में असंतोष दूर करने की सलाह दी और उत्तर प्रदेश में खुद हालात से निपटने का निर्णय लिया।
संघ की पृष्ठभूमि वाले भाजपा महासचिव अरुण सिंह को मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के समर्थन में कर्नाटक भेजा गया। गुजरात में जहां पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सी.आर. पाटील और मुख्यमंत्री विजय रुपाणी आमने-सामने हैं, वहां असंतुष्ट विधायकों के साथ भाजपा के शीर्ष नेताओं ने बात की। मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा के बीच भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने स्थिति को संभाला। उससे पहले केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देब के खिलाफ असंतोष को दबाया लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को बदलने पर मजबूर भी हुआ।
संघ की नजर इन राज्यों पर भी है, लेकिन उसका फोकस उत्तर प्रदेश है। भाजपा और संघ के शीर्ष नेतृत्व ने 23 मई को राज्य की स्थिति का जायजा लिया और महामारी की दूसरी लहर के असर की समीक्षा की। उस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबले और भाजपा के प्रदेश संगठन सचिव सुनील बंसल मौजूद थे। संघ में नंबर दो की हैसियत रखने वाले होसबले 24 से 28 मई तक प्रदेश में ही थे, जहां उन्होंने राज्यस्तरीय पदाधिकारियों के साथ विमर्श किया और योगी सरकार के प्रति फीडबैक लिया। ऐसी ही एक बैठक में मौजूद रहने वाले संघ के एक नेता के अनुसार, “कोविड-19 के कारण योगी सरकार की छवि को हुए नुकसान को लेकर वे काफी चिंतित थे। उन्होंने गंगा तट पर दफनाई गई और पवित्र नदी में बहाई गई लाशों के बारे में भी जानकारी ली।”
सूत्रों का दावा है कि उसके बाद होसबले दो और बैठकें कर चुके हैं। प्रदेश भाजपा इकाई को यह संदेश गया है कि विधानसभा चुनाव योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। संघ के उक्त पदाधिकारी ने बताया, “योगी हिंदुत्व की मजबूत छवि वाले नेता हैं। सीएए विरोधियों, लव जिहाद कानून और अवैध बूचड़खाने बंद करने जैसे मुद्दों पर उनका रवैया संघ की विचारधारा के अनुरूप ही है। संघ यह भी जानता हैं कि 2024 के चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पूरा करने के लिए योगी ही सबसे योग्य व्यक्ति हैं।”
संघ ने योगी और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच मध्यस्थ की भी भूमिका निभाई। मौर्य चाहते थे कि 2022 के चुनाव में योगी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार न बनाया जाए। होसबले, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बी.एल. संतोष और कृष्ण गोपाल समेत कई नेता योगी के साथ मौर्य के घर भोजन के लिए पहुंचे। संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार, “मतभेद दूर करने के लिए संघ सहभोज और बैठक जैसी रणनीतियां अपनाता है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में पराजित होने के बाद वह यहां मौका नहीं गंवाना चाहता।”
हालांकि संघ की पृष्ठभूमि वाले एक वरिष्ठ भाजपा नेता के अनुसार यह कहना गलत होगा कि संघ उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रखते हुए यह सब कर रहा है। वे कहते हैं, “संघ ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा जो असामान्य हो। वह तो कोविड-19 के बाद राहत कार्यों में व्यस्त है।” हालांकि इस नेता ने स्वीकार किया कि बंगाल चुनाव और उससे पहले 2018 में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में संघ की सक्रिय भूमिका थी। उन्होंने कहा, “दोनों राज्यों में संघ के लिए लड़ाई राजनैतिक नहीं, बल्कि वैचारिक थी। बंगाल में लड़ाई मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ तो त्रिपुरा में हिंसक कम्युनिस्ट संस्कृति के खिलाफ थी।”
संघ पर छह किताबें लिखने वाले रतन शारदा के अनुसार संघ के कार्यकर्ताओं को भाजपा की खातिर काम करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं, “जिनकी रुचि है सिर्फ वही भाजपा के पक्ष में प्रचार करने जाते हैं। यह संबंध 1951 से है जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पार्टी को मजबूत करने के लिए संघ की मदद मांगी थी। संघ और भाजपा की कुछ बातें मिलती-जुलती हैं, पर यह कहना ठीक नहीं कि दोनों 100 फीसदी मिलते-जुलते हैं।”
शारदा के मुताबिक चुनाव में संघ के हस्तक्षेप की इतनी चर्चा इसलिए है क्योंकि मीडिया का फोकस उत्तर प्रदेश है। वे कहते हैं, “अटल बिहारी वाजपेयी आडवाणी की तुलना में नरम थे, आडवाणी मोदी की तुलना में नरम हैं और मोदी योगी के मुकाबले नरम हैं। मीडिया इस तरह के समीकरण पसंद करता है। जब के.एस. सुदर्शन संघ प्रमुख थे तब अटल जी के साथ उनका टकराव सुर्खियां बनता था। दिल्ली में जब दोनों नेता मिले तब उनके मतभेद की गलत खबरें फैलाई गईं।” शारदा मानते हैं कि एक बड़ी लाबी है जो योगी से डरी हुई है। संभवतः उनके भगवा कपड़ों के कारण। यही लॉबी उन्हें हटाने के लिए कहानियां गढ़ती रहती है। पहले वे लोग मोदी के पीछे थे, अब योगी के पीछे हैं। यह जरूर है कि उनका मुख्य लक्ष्य अब भी मोदी ही हैं।
शारदा इस बात को अनुचित मानते हैं कि कांग्रेस शासित राजस्थान या महाराष्ट्र के महा विकास आघाडी गठबंधन के बारे में कोई नहीं लिखता। वे कहते हैं, “कोविड-19 प्रभावितों की मदद के लिए संघ निरंतर कार्य कर रहा है, लेकिन उनके बारे में शायद ही कहीं कोई चर्चा होती है। यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर बात को राजनीति के चश्मे से देखा जाता है।”