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बस्‍तर दशहरा: काछन देवी आज राजपरिवार को देंगी दशहरा मनाने की अनुमति

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जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा उत्सव (BASTAR DASHERA) में रविवार शाम को काछनगादी पूजा विधान संपन्न होगा। कांटे के झूले में झूलने वाली कंटकजई काछन देवी बस्तर राजा को दशहरा मनाने की अनुमति प्रदान करती हैं। यह अवसर काफी प्रेरक मर्मस्पर्शी होता है। सैकड़ों लोगों की भीड़ पूजा विधान की साक्षी बनती है। अश्विन माह की अमावस्या के दिन काछनगादी पूजा की जाती है। इसके लिए राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या समय धूमधाम से जुलूस लेकर देवी के मंदिर पहुंचते हैं। दंतेश्वरी के पुजारी द्वारा राज्य परिवार की ओर से कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है।

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मान्यता के अनुसार काछन देवी पशुधन और अन्ना धन की रक्षा करती है। प्रतिवर्ष एक नाबालिग बालिका पर काछन देवी आरूढ़ होती है। कार्यक्रम के तहत एक भैरव भक्त सिरहा आह्वान करता है और उस कुमारी लड़की पर काछन देवी का प्रभाव आने लगता है। काछन देवी आने पर लड़की को एक कांटेदार झूले (BASTAR DASHERA)  पर लिटा कर झुलाया जाता है। देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछन गादी पूजा विधान में इस बार जगदलपुर की छह वर्ष की पीहू दास पर काछन देवी आरूढ़ होंगी। इसके पहले तेलीमारेंगा की अनुराधा दास पर देवी आरूढ़ होती रही हैं। सात वर्षों तक अनुराधा देवी का प्रतिरूप रही। काछन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का दशहरा समारोह धूमधाम से प्रारंभ हो जाता है।

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ढाई सौ सालों से हो रही काछन देवी की पूजा

एक किंवदंती के अनुसार जगदलपुर बसाने से पूर्व यहां एक माहरा कबीला (BASTAR DASHERA)  कहीं बाहर से आकर बस गया था। कबीला के मुखिया का नाम जगतू था। जगतू के समय में उसी के नाम पर वर्तमान जगदलपुर का नाम जगतूगुड़ा पड़ा था। उस कबीला को जब हिंसक पशुओं से प्राण बचाना मुश्किल हो गया। तब एक दिन कबीले का मुखिया जगतू बस्तर ग्राम तक गया और वहां के तत्कालीन नरेश दलपत देव से मुलाकात की। उसने उनसे अभय दान मांगा। आखेट प्रेमी राजा दलपत देव ने जगतू को आश्वस्त किया और एक दिन आखेट की तैयारी के साथ जगतूगुडा पहुंचे। उन दिनों राज्य का नाम चक्रकोट के बदले बस्तर प्रचलन में आ चुका था।