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मास्को में आमने-सामने भारत और तालिबान

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दिल्ली। अफगानिस्तान के मामले में रूस फिर से सक्रिय हो रहा है। तालिबान और रूस के बीच की शुरुआती दुश्मनी के बाद दोस्ती हुई है। अब मौजूदा समय में रूस अपनी भूमिका को अगले लेवल पर ले जाने की कोशिश में है। इसी क्रम में रूस ने अफगानिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की बातचीत का दौर शुरू किया है। दरअसल, अफगानिस्तान के मुद्दे पर मॉस्को फॉर्मेट (Moscow Format) की शुरुआत 2017 में हुई थी जिसमें छह देशों – रूस, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, ईरान और भारत को शामिल किया गया था। अब मास्को फॉर्मेट की बैठक आज फिर होने वाली है जिसमें भारत भी शामिल हो रहा है।

भारत विशेष रूप से आमंत्रित

यह बैठक रूस ने आयोजित की है। इसमें भारत को विशेष रूप (Moscow Format)  से आमंत्रित किया गया है। भारत की ओर से विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव पद के दो अधिकारियों के इस बैठक में शामिल होने की संभावना है। इस बैठक में तालिबान भी हिस्सा लेगा। ऐसे में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत और तालिबान के प्रतिनिधि दूसरी बार आमने-सामने होंगे। इस बैठक में अमेरिका को भी आमंत्रित किया गया था । लेकिन उसने शामिल होने से इनकार कर दिया है।

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10 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे

रूस द्वारा बुलाई गई इस बैठक में 10 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे । जिनमें रूस के अलावा अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान, ईरान और भारत शामिल हैं। अफगानिस्तान के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए 2017 में मॉस्को फॉर्मेट की शुरुआत की गई थी। 2018 में हुई इस बैठक में भारत की ओर से पूर्व राजनयिक शामिल हुए थे। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनने के बाद पहली बार भारत इसमें हिस्सा ले रहा है।

अमेरिका नहीं होगा शामिल

मास्को फॉर्मेट वार्ता (Moscow Format)  में अमेरिका शामिल नहीं हो रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा है कि हम आगे भी उस फोरम में शामिल होने के लिए उत्सुक हैं। लेकिन हम इस सप्ताह हिस्सा लेने की स्थिति में नहीं हैं।

दरअसल, अमेरिका और रूस के आपसी रिश्ते इस वक़्त अपने निम्नतम स्तर पर हैं। वैसे जानकारों का कहना है कि अमेरिका के इस बैठक में शामिल न होने की कई वजहें हो सकती हैं। चंद दिन पहले अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विशेष दूत ज़ालमय ख़लीलज़ाद ने इस्तीफ़ा दे दिया। ज़ालमय ख़लीलज़ाद ने तालिबान के साथ अमेरिकी वार्ता का नेतृत्व किया था। लेकिन महीनों तक चली कूटनीतिक वार्ता भी तालिबान को क़ब्ज़े से रोकने में विफल रही। इस वजह से सरकार को काफी आलोचना झेलनी पड़ी है।